स्वामी विवेकानंद की योग-साधना

महायोगी स्वामी विवेकानंद की योग-साधना में योग विघा के विभिन्न आयामो का समन्वय है। ज्ञान, कर्म और भक्ति की त्रिवेणी उनके व्यक्तित्व से अविरल प्रवाहित होती है और राजयोग की पराकाष्ठा उनके जीवन को सूर्य की भांति दीप्तिमान बनाती है। आधुनिक युग में स्वामी जी के बहुआयामी यौगिक व्यक्तित्व एवं योग साधनाओं की विरासत-योग को जानने, समझने और अपनाने के लिए प्रयासरत लोगो के लिए अत्यंत उपयोगी एवं ज्ञानबर्द्धक है। इसी उद्देश्य से देव संस्कृति विश्वविघालय में योग विज्ञान विभाग के अंतर्गत स्वामी विवेकानंद की योग-साधना के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण शोधकार्य संपन्न किया गया है। 
यह शोधकार्य वर्ष 2011 में शोधार्थी पूनम कुमारी मिश्रा द्वारा कुलाधिपति डॉ. प्रणव पण्डया के विशेष संरक्षण एवं डॉ. यू.एस. बिष्ट के निर्देशन में पूरा किया गया। इस शोध का विषय था-  योग की विविध परंपराओं के परिप्रेक्ष्य में स्वामी विवेकानंद की योग-साधना के विविध आयामां का विवेचनात्मक अध्ययन। सैद्धांतिक एवं विवेचनात्मक विधि पर आधृत इस शोध-अध्ययन को कुल आठ अध्यायों में विभाजित किया गया है।
प्रथम अध्याय है-विषय प्रवेश। इसके अंतर्गत व्यक्ति, समाज व विश्व की सामयिक समस्याओं एवं उनके समाधान में योग की भूमिका का विवेचन करते हुए स्वामी विवेकानंद के यौगिक दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया गया है। आज व्यक्ति का जीवन आर्थिक, सामाजिक और मानसिक समस्याओं से घिरा हुआ है। समाज में भी सभ्य कहा जाने वाला वर्ग, घोर नासमझी और अंधमान्यताओें, संकीर्णताओं में उलझा पडा है। विश्व में हिंसा, अपराध, भ्रष्टाचार, आतंकवाद की समस्याएं निरंतर बढ रही है।
इनके समाधान हेतु स्वामी जी के विचारों में मूल मंत्र-त्याग (आत्मोत्सर्ग) सेवा और मानव कल्याण की भावना का अवलंबन है। स्वामी जी की मान्यता में ‘अहं ब्रहृास्मि’ की सच्ची धारणा संपूर्ण मानव जाति को अखंडता का आधार प्रदान करती है और इसी ऋषिसूत्र में समस्त समस्याओं का समाधान निहित है। 
द्वितीय अध्याय है-योग की विविध परंपराएं और स्वामी विवेकानंद। इस अध्याय में योग के प्रादुर्भाव, इतिहास व स्वरूप का विवेचन करते हुए योग की विभिन्न धाराओं व उनके योगाचार्यो का परिचय प्रस्तुत किया गया है। इसके साथ ही स्वामी विवेकानंद के यौगिक व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विवेचना की गई है। योगशास्त्रों में हिरण्यगर्भ को योग का आदिप्रवक्ता मानते हुए योग की उत्पत्ति वेद से भी पूर्व बताई गई है।


आध्यात्मिक दृष्टि से योग का अर्थ जीवात्मा तथा परमात्मा के मिलन से है। योग की अनेक धाराएं है। इनमें भी मंत्रयोग, हठयोग, लययोग और राजयोग को अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है। स्वामी विवेकानंद ने योग की इन विशिष्ट परंपराओं को विश्व के समक्ष व्यावहारिक ढंग से प्रस्तुत किया। उन्होने राजयोग, कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग आदि योग-प्रणालियों के द्वारा जनसामान्य एवं युवाओं में अध्यात्म एवं योग के प्रति समर्पण की भावना को उत्प्रेरित किया।
तृतीय अध्याय है-कर्मयोग की परंपरा और स्वामी विवेकानंद का कर्मयोग। इसके अंतर्गत कर्मयोग परंपरा का प्रादुर्भाव व विकास एवं कर्मयोग के प्रमुख आचार्या का परिचय प्रस्तुत करते हुए कर्मयोग के विविध आयामों व स्वामी जी की कर्मयोग-साधना के महत्व की विवेचना की गई है। कर्मयोग का तात्पर्य आसक्ति और कामनाओं को त्यागकर समत्व बुद्धि से कर्तव्य-कर्म का आचरण करना है। कर्मयोग में कर्म, दूसरो के लिए और योग, अपने लिए होता है। कर्मयोगी अपने लिए कभी कोई कर्म नहीं करता। स्वामी जी के अनुसार समस्त कर्मा का उद्देश्य आत्मा को जाग्रत करने के लिए है, क्योकि आत्मा में ही अनंत शक्ति और पूर्ण ज्ञान विघमान है। कर्मा को निस्स्वार्थ भावना के साथ करने से कर्मयोग का मार्ग सहज हो जाता है।
चतुर्थ अध्याय है-राजयोग की परंपरा और स्वामी विवेकानंद का राजयोग। इस अध्याय के अंतर्गत राजयोग की परंपरा का प्रादुर्भाव और राजयोग के प्रमुख आचार्या का परिचय प्रस्तुत करते हुए राजयोग का तात्पर्य उद्देश्य, अंग व साधना-विधि की विवेचना की गई है। इसके साथ ही स्वामी विवेकानंद की राजयोग-साधना का महत्व उजागर किया गया है। राजयोग का व्यवस्थित रूप सर्वप्रथम योगसूत्र में महर्षि पतंजलि के योगदर्शन के रूप में सामने आया है। इसके पश्चात् योगसूत्र पर अनेक भाष्य हुए, जिन्हें राजयोग के प्रामाणिक साहित्य में गिना जाता है।
सभी योग-साधनाओं में श्रेष्ठ होने के कारण इस योग को राजयोग कहा जाता है। राजयोग में चित्त के मलो को हटाकर शुद्ध चित्त का परमात्मा में विलय किया जाता है। राजयोग का उददेश्य समस्त मानसिक बाधाओ से मुक्त होकर आंतरिक शक्तियों को जाग्रत कर प्रकृति और परमात्मा के रहस्यो को जानना है। योगसूत्र में राजयोग के आठ अंग बताए गए है-यम, नियम, आसन, प्राणायम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। स्वामी जी के अनुसार राजयोग एक विज्ञान है जिससे अतीद्रिय क्षमताओं का संकलन किया जाता है। इसका एक मात्र उद्देश्य सत्य को प्राप्त करना है।
पंचम अध्याय है-ज्ञानयोग की परंपरा और स्वामी विवेकानंद का ज्ञानयोग। इसके अंतर्गत ज्ञानयोग की परंपरा के रूप में वेदांत का इतिहास एवं ज्ञानयोग के प्रमुख आचार्यो का परिचय प्रस्तुत किया गया है। इसके साथ ही ज्ञानयोग का तात्पर्य, स्वरूप व ज्ञानयोगी के लक्षण समझाते हुए ज्ञानयोग के साधन सिद्धांत व साधना पद्धति की विस्तृत विवेचना की गई है तथा स्वामी विवेकानंद जी की ज्ञानयोग-साधना का महत्व प्रस्तुत किया गया है।
ज्ञानयोग का अर्थ है-ज्ञान का मार्ग। यह ऐसी विधि है जिससे अंतर्प्रज्ञा को जाग्रत कर सत्य का यथार्थ का बोध प्राप्त किया जाता है। मुक्ति के लिए ज्ञान को ही एक मात्र साधन मानते हुए ज्ञानयोग में सत्य के प्रति उत्पन्न जिज्ञासा को सुदृढ बनाया जाता है। ज्ञानयोग का उद्देश्य-अज्ञान से मुक्ति और ईश्वर की प्राप्ति है। वेदांत दर्शन के अनुसार, ज्ञानमार्ग के लिए बहिरंग साधन है- विवके, वैराग्य, षट्संगति (श्रम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा और समाधान) और मुमुक्षुत्व तथा अंतरंग साधन है- श्रवण, मनन और निदिध्यासन। स्वामी जी के विचारो में ज्ञान हमें संकीर्णताओें से ऊंचा उठाकर आत्मदर्शन और ईश्वरदर्शन कराता है। ज्ञानयोगी को हर वस्तु को अस्वीकारना चाहिए क्योकि वह वस्तु नहीं है और केवल आत्मा पर ही दृढ रहना चाहिए। क्योकि वह वास्तव में परमात्मा का ही अंश है।
पष्ठ अध्याय है-भक्तियोग की परंपरा और स्वामी विवेकानंद का भक्तियोग। इस अध्याय में भक्तियोग की परंपरा की उत्पति, विकास और विस्तार की विवेचना करते हुए भक्तियोग के प्रमुख आचार्या का परिचय प्रस्तुत किया गया है। साथ ही स्वामी विवेकानंद के अनुसार भक्ति का तात्पर्य, लक्षण, प्रकार एवं भक्ति की उपलब्धियों पर प्रकाश डाला गया है। भक्ति का अर्थ भगवान से अनन्य प्रेम होता है। स्वामी विवेकानंद के अनुसार, भक्तिमार्ग मात्र भक्ति से ईश्वर प्राप्ति का मार्ग है। भक्ति के दो मार्ग है- गौणीभक्ति और पराभक्ति। इनमें पराभक्ति श्रेष्ठ मार्ग है। भक्तियोग में साधक किसी एक भाव, यथा-शांत, दास्य, सत्य, वात्सल्य व मधुर को लेकर ईश्वर के प्रति रागात्मक प्रेम उत्पन्न करता है। स्वामी जी के गुरू रामकृष्ण परमहंस ने इन भावो के अतिरिक्त माता-पुत्र के भाव को इस युग के लिए भक्ति साधना का सर्वश्रेष्ठ माध्यम बताया है। 
सप्तम अध्याय है- स्वामी विवेकानंद का योग व योग-परंपराओं का समन्वय। इसके अंतर्गत विभिन्न योग-परंपराओ के परिप्रेक्ष्य में स्वामी विवेकानंद की समन्वित योग पद्धति के महत्व की विवेचना की गई है। स्वामी जी के विचारों में राजयोग, कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग का समन्वय है एवं इन चारों विधाओं की अत्यंत व्यावहारिक विवेचना है। उनकी दृष्टि में योग की सभी परंपराओं का ध्येय, आत्मचेतना के भीतर ईश्वरत्व की अनुभूति को प्राप्त करना है।
अंतिम अध्याय-उपसंहार है। इसमें शोध-अध्ययन का निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए स्वामी विवेकानंद के यौगिक विचारों का महत्व एवं प्रासंगिकता का विवेचन किया गया है। शोधार्थी ने अपने अध्ययन में सामायिक समस्याओं को रेखांकित करते हुए उनके यौगिक समाधान प्रस्तुत किए है तथा स्वामी विवेकानंद की समन्वित योग पद्धति के रूप में प्राचीन योग-परंपराओं का अत्यंत जनसुलभ और व्यावहारिक स्वरूप सामने लाने का प्रयास किया है।