विवेक से मिलती है वासना पर विजय

ज्योति महिला छात्रावास की दूसरी मंजिल के एक कमरे में रहती थी। उसके समानांतर एक अन्य कमरे में जेनी रहती थी। दोनो के कमरो के बाहर बरामदे, एक दूसरे के बीच एक दीवाल से अलग-अलग होते थे। दोनो बाहर बरामदे में बैठी थी। कुरसियों पर बैठी हुई वे दिव्य हिमालय को निहार रही थी क्यांकि उनकी खिडकी से हिमालय की समूची दिव्यता व वैभव दृष्टिगोचर होता था। ज्योति एवं जेनी, दोनो ही की दृष्टि हिमाच्छादित शुभ्र धवल शिखर को देखकर ठहर गई थी। निरभ्र आकाश के विस्तार में चंद्रदेव अपनी संपूर्ण प्रभा के साथ उदित हो चुके थे। उनकी चांदनी हिमालय के इस दिव्य परिसर की दिव्यता को शतगुणित कर रही थी। चारों ओर हिमशिखरों से घिरी यह घाटी अद्भूत प्रतीत हो रही थी।
वातावरण मे पर्याप्त शीतलता थी। ज्योति ने गरम कपउे पहने हुए थे उसने हाथ में एक गरम पेय लिया हुआ था, जिसे पीते हुए वह अपलक हिमालय के इस दिव्य, दैवीय एवं अद्भूत सौदर्भ को अपने अंतस् में भर रही थी। दूसरी ओर खडी जेनी भी हिमालय के इस अप्रितम सौंदर्भ से अत्यंत प्रभावित थी। इसलिए तो वह अपना पाठ्यक्रम पूर्ण हो जाने के बाद भी वहीं रूकी हुई थी।
ज्योति और जेनी, दोनो मित्र थीं। दोनो के विचार एक दूसरे से मिलते थे और साथ ही ज्योति व जेनी दोनो को हिमालय की वादियां में घूमना पसंद था। ज्योति एक कुलीन परिवार से संबंधित थी। उसकी रग-रग में भारतीय संस्कृति बसी थी। इतनी कम उम्र में वह त्याग तप एवं व्रत-उपवास को अपने जीवन का अभिन्न अंग बना चुकी थी। जेनी को ज्योति बहुत अच्छी लगती थी व उसके सांस्कृतिक मूल्य भी उसे आकर्षित करते थे।
ज्योति अपलक हिमालय के इस सौंदर्भ को निहार रही थी। वह तब चौकी जब पीछे से जीने ने उसे आवाज दी जेनी ने कहा-‘‘ज्योति! मै भी तुम्हारे साथ बैठकर ध्यान करना चाहती हॅू। तुम्हें कोई ऐतराज तो नहीं। यदि तुम्हारे मौन में कोई व्यवधान न हो तो मैं तुम्हारे पास बैठ सकती हॅू’’- इतना कहकर वह ज्योति के बगल में खडी हो गई। दोनो ही एक दूसरे की भावनाओं का पर्याप्त सम्मान करती थी। यही तो प्रगाढ संबंधो का आधार है ज्योति ने कहा- हां,हां! यहां अवश्य बैठो। आओ साथ बैठकर हिमालय की इस दिव्यता का आनंद उठाते है।’’
जेनी के मन मे कई दिनांं से एक प्रश्न उभर रहा था और उसके पास इसका कोई समाधान नहीं था। उसे विश्वास था कि ज्योति अवश्य ही उसका समाधान करेगी। जेनी ने कहा- ज्योति! मेरे मन में एक प्रश्न है, क्या तुम इसका समाधान कर सकती हो’’ ज्योति आत्मीयता से बोली-‘‘ क्योकि नही! मेरे पास इसका समाधान होगा तो अवश्य करूंगी।’’ जेनी ने पूछा-‘‘वासना का अंत कहां है? कैसे वासना को संयमित एवं नियंत्रित किया जा सकता है? किस विधि से संभव है?’’
ज्योति इस प्रश्न को सुनकर अपने अतीत की उन यादों में चली गई, जब उसके दिवंगत दादा जी ने कुछ ऐसे ही प्रश्न का उत्तर दिया था। ज्योति अपने दादा जी की ही बातों को बताने लगी। ज्योति ने कहा-‘‘वासना अंतहीन है, उसका कोई अंत नहीं है। वासना तृप्ति का भरोसा दिलाती है लेकिन अतृप्ति को और गहरा करती है। इसलिए वासना के पीछे भागने के लिए आंखो का बंद होना जरूरी है। इसके लिए मैं तुम्हें एक कीडे का जीवनचक्र बताती हॅू। एक विशेष प्रकार के कीडे होते हैं जो अपने नेता कीडे के पीछे चलते है। यदि इन कीडा को एक गोल थाली में रख दिया जाए तो ये सब इस थाली की गोलाई में चलने लगते है। जहां से चले थे, वहीं पहुंच जाते है। फिर से वे वहीं से चलना शुरू कर देते है और बार-बार वहीं पहुंचने है।’’
ज्योति बोली-‘‘जेनी! वसनाओं के पीछे भागते हुए व्यक्तियों की दशा भी कुछ इसी तरह की है। मौत से पहले वे कभी नहीं जान पाते कि जिस मार्ग पर वे हैं उस मार्ग का कोई अंत नहीं है वह एक वर्तुल है, जिसकी कोई मंजिल नहीं है। यह कहीं नहीं पहुंचता है। वर्तुल तो बस गोल गोल घुमाता है पहुंचाता कहीं भी नहीं है। जो वासनाओं के पीछे दौड रहे है, वे भी बस उसी तरह गोल गोल चलते जाते है। वे यह विचार भी नहीं कर पाते कि वासनाओं का अंत नहीं है ये कहीं नहीं पहुंचेगी। घूम-फिरकर हम वहीं उन्हीं वासनाओं में अटक जाते है।’’
जेनी ध्यान से ज्योति की बात सुन रही थी। ज्योति की बातें उसके प्रश्न का समुचित समाधान कर पा रही थी। उसकी निगाहें बीच-बीच में हिमाच्छादित शिखरों पर चली जाती थीं जो चंद्रमा के प्रकाश में नहा उठे थे। ज्योति तो इन धवल शिखरों को अपलक निहार रही थी। जेनी ने कहा-’’ज्योति! इस वासना पर कैसे विजय पाई जा सकती है।‘‘
ज्योति बोली-’’ वासनाओं की पीछे चलकर भला कब,कौन,कहां पहुंचा है। इस राह पर न तो तृप्ति है न तुष्टि और न ही शांति। कम ही ऐसे सौभाग्यशाली होते है, जो अपनी मृत्यु से पहले इस भटकन से उबरकर विवके का अनुसरण करने लगते है। विवके ही एक मात्र समाधान है-वासना का। विवके हो तो वासना कहीं नहीं ठहर पाती है जो आंखे खोलकर चलने का साहस करते है वे अपने ही आप विवके को पा जाते है और जब विवके की प्राप्ति, उपलब्धि एवं अनुभव हो जाता है, तब विवके के सम्मुख वासना की सारी अतृप्ति वैसे ही भाप बनकर उड जाती है, जैसे सूरज की तपन में ओस के कण उड जाते है। वासना में अतृप्ति, असंतुष्टि और अंशाति मे सिवाय कुछ नहीं मिलता और विवके में ठीक इसके उलट तृप्ति, तुष्टि एवं शांति का खजाना भरा हुआ है। विवके ही वासना का एक मात्र समाधान है। विवके को जाग्रत करके ही वासना पर विजय पाई जा सकती है।


निरभ्र आकाश में चांद ढलने लगा था। ज्योति के इस विवेकपूर्ण समाधान से जेनी के सारे प्रश्न विलीन हो चुके थे। जेनी ज्योति की ओर देखते हुए बोली- ज्योति! तुम्हारे इस समाधान रूपी उपहार के बदले मेरे पास देने के लिए कुछ भी नहीं है। ज्योति ने कहा- जैनी! विवेक को जाग्रत करने का प्रयास करो इसी के अनुरूप चलो। वासना से विवेक की ओर बढो। यही मेरे लिए सर्वोत्तम उपहार होगा। इतना कहकर दोनो अपने-अपने कमरे में चली गई। रात गहरी हो चुकी थी पर आज जेनी के अंतर्मन मे विवेक रूपी चंद्रोदय हो चुका था।